झलकियां ब्रह्म की
परमपूज्य लालाजी महाराज की कलम से:
जब कुछ भी नहीं था; प्रारम्भ में केवल वर्णनातीत और अकथनीय अंधेरा, जिसके ऊपर उससे भी गहरे अंधेरे की ओढनी थी। अचानक एक कंपन हुआ। और ओढनी खिसकी,नीचे गिरी और उसके गर्भ से संदेह की छाया सामने आई जिससे कि 'काल' का जन्म हुआ और इसी महाकाल से अग्यान और उसके प्रतिबिम्ब का चक्र प्रारम्भ हुआ। उसने इधर-उधर देखा और कहा- "मैं हूं"। और यहां से "मैं" शब्द का "मैं" का भाव उत्पन्न हुआ । और इस प्रकार "मैं" शब्द या अहम-भाव का श्री गणेश हुआ अर्थात "मैं हूं" व्रत्ति सामने आई। उससे "भय" का जन्म हुआ। भय का जन्म, अलगाववाद व "मैं" के संयोग से हुआ। उससे इस विचार को गति मिली- "मेरे अतिरिक्त कोई है ही नहीं अत: मैं अनावश्यक क्यों डरूं? और इस प्रकार "भय" का स्वरूप अद्ष्ट हो गया। भय को भगाने के लिये आज भी यही क्रिया की जाती है। भय के गायब होते ही वास्तविकता का आभास और इसी वास्तविकता के विस्तार की "इच्छा" सामने आई। और इसी के परिणाम्स्वरूप ब्रह्म की परिकल्पना भी अस्तित्व में आई जिसका कि कर्त्ता बाद में 'ब्रह्म' कहलाया।
परमपूज्य लालाजी महाराज की कलम से:
जब कुछ भी नहीं था; प्रारम्भ में केवल वर्णनातीत और अकथनीय अंधेरा, जिसके ऊपर उससे भी गहरे अंधेरे की ओढनी थी। अचानक एक कंपन हुआ। और ओढनी खिसकी,नीचे गिरी और उसके गर्भ से संदेह की छाया सामने आई जिससे कि 'काल' का जन्म हुआ और इसी महाकाल से अग्यान और उसके प्रतिबिम्ब का चक्र प्रारम्भ हुआ। उसने इधर-उधर देखा और कहा- "मैं हूं"। और यहां से "मैं" शब्द का "मैं" का भाव उत्पन्न हुआ । और इस प्रकार "मैं" शब्द या अहम-भाव का श्री गणेश हुआ अर्थात "मैं हूं" व्रत्ति सामने आई। उससे "भय" का जन्म हुआ। भय का जन्म, अलगाववाद व "मैं" के संयोग से हुआ। उससे इस विचार को गति मिली- "मेरे अतिरिक्त कोई है ही नहीं अत: मैं अनावश्यक क्यों डरूं? और इस प्रकार "भय" का स्वरूप अद्ष्ट हो गया। भय को भगाने के लिये आज भी यही क्रिया की जाती है। भय के गायब होते ही वास्तविकता का आभास और इसी वास्तविकता के विस्तार की "इच्छा" सामने आई। और इसी के परिणाम्स्वरूप ब्रह्म की परिकल्पना भी अस्तित्व में आई जिसका कि कर्त्ता बाद में 'ब्रह्म' कहलाया।